जिस रात भी चराग़-ए-शब-ए-ग़म रहा हूँ मैं उस रात रौशनी में बहुत कम रहा हूँ मैं ग़ैरों से दोस्ती को बढ़ाया है अपना हाथ ख़ुद कितना अपने आप से बरहम रहा हूँ मैं ख़ुश्बू दिल-ओ-दिमाग़ में और वो भी इस क़दर फूलों का हम-नशीं तो बहुत कम रहा हूँ मैं ये शहर-ए-जिस्म-ओ-जाँ मिरी पहचान बन गया इस शहर में अगरचे बहुत कम रहा हूँ मैं कुछ फूल हाथ पर मिरे कुछ ख़ार जिस्म में 'सौलत' ये किस बहार का मौसम रहा हूँ मैं