जिस रोज़ से अपना मुझे इदराक हुआ है हर लम्हा मिरी ज़ीस्त का सफ़्फ़ाक हुआ है घर से तो निकल आए हो सोचा नहीं कुछ भी अब सोच रहे हो जो बदन चाक हुआ है तहज़ीब ही बाक़ी है न अब शर्म-ओ-हया कुछ किस दर्जा अब इंसान ये बेबाक हुआ है गुज़रा है कोई सानेहा बस्ती में हमारी हर शख़्स का चेहरा यहाँ ग़मनाक हुआ है उफ़्ताद ज़माने की पड़ी ऐसी है मुझ पर था जो भी असासा ख़स-ओ-ख़ाशाक हुआ है आँधी थी वो नफ़रत की कि इंसाँ था अंधा हैं शो'ले उठे ऐसे कि सब ख़ाक हुआ है अस्लाफ़ के अक़दार को अपनाया है जिस ने पस्ती में रहा फिर भी वो अफ़्लाक हुआ है रखा है क़दम जिस ने सियासत के सफ़र पर वो शख़्स 'ज़फ़र' साहब-ए-इम्लाक हुआ है