जिस शख़्स को देखो वही सरगर्म-ए-सफ़र है दुनिया कहीं वीरान न हो जाए ये डर है लाएगी कभी रंग हवाओं की मोहब्बत हम जिस में बसर करते हैं वो रेत का घर है सहरा में किसी साए की उम्मीद न टूटी हसरत की निगाहों में बगूला भी शजर है निकली है गुमानों से यही शक्ल यक़ीं की जिस सम्त उड़े गर्द वही राहगुज़र है महताब तो निकला ही नहीं डूब के 'फ़ाख़िर' लेकिन मिरे दरिया में वही मद्द-ओ-जज़र है