जिसे ख़ुद से जुदा रक्खा नहीं है वो मेरा है मगर मेरा नहीं है जिसे खोने का मुझ को डर है इतना उसे मैं ने अभी पाया नहीं है नुक़ूश अब ज़ेहन से मिटने लगे हैं बहुत दिन से उसे देखा नहीं है सुना है फूल अब खिलते नहीं हैं तो क्या खुल कर वो अब हँसता नहीं है नगर छोड़ा है जब से उस ग़ज़ल ने कोई शाइ'र ग़ज़ल कहता नहीं है तिरी यादों से रौशन है मिरा दिल ये वो सूरज है जो ढलता नहीं है मिरी आँखों का ये दरिया अजब है कि बहता है तो फिर थमता नहीं है ख़ुशी का हो कोई या ग़म का लम्हा गुज़र जाता है क्यों रुकता नहीं है 'सबीह'-ओ-ख़ूब-रू चेहरे कई हैं मगर कोई भी उस जैसा नहीं है