जिसे तू ने समझा है ज़िंदगी उसी इंक़लाब का नाम है कभी दिन हुआ कभी शब हुई कभी सुब्ह है कभी शाम है तह-ए-ख़ाक भी दिल-ए-मुब्तला को कभी क़रार न आएगा हूँ अभी से हश्र का मुंतज़िर कि नवेद जल्वा-ए-आम है कोई हौसला है न मुद्दआ' कोई आरज़ू है न इल्तिजा मिरे दिल में इक तिरी याद है मिरे लब पे इक तिरा नाम है वहाँ वा'दे होते हैं आए दिन सर-ए-शाम ख़्वाब में आएँगे यहाँ इज़्तिराब-ए-तमाम से मिरी शब की नींद हराम है तू शराब दे कि न दे मगर मिरे दिल को तोड़ न साक़िया कि ग़रीब बादा-परस्त का यही शीशा है यही जाम है मिरे ज़ौक़-ए-दीद का हो बुरा कहाँ जा के सेंके कोई नज़र न तजल्ली-ए-सर-ए-रह-गुज़र न तजल्ली-ए-सर-ए-बाम है मिरी क़ैद-ए-ज़ीस्त के साथ ही है अजल की क़ैद लगी हुई हूँ सरीर में वो असीर-ए-ग़म जो क़फ़स में भी तह-ए-दाम है