जिस्म ख़ामोश सी तस्वीर हुआ जाता है अब तिरा हिज्र ले ता'मीर हुआ जाता है रब्त जब एक की तक़दीर से हो जाए तो फिर क्या किसी और की तक़दीर हुआ जाता है रुख़ उकेरे हुए माज़ी की कहानी के नुक़ूश अब ग़म-ए-हिज्र की तश्हीर हुआ जाता है अक्स उभरे शब-ए-फ़ुर्क़त में जो दीवारों पर वक़्त मेरे लिए शमशीर हुआ जाता है तू भी अब देख ले इस सब्र के दामन को समेट ज़ब्त मेरा भी अब आख़ीर हुआ जाता है उस ने जाने का कहा मैं ने भी रोका ही नहीं क्या कभी पाँव की ज़ंजीर हुआ जाता है हाए ग़ज़लें तिरी दिल चीर के रख देंगी 'शहाब' चंद अर्से में कहाँ 'मीर' हुआ जाता है