जिस्म में गूँजता है रूह पे लिक्खा दुख है तू मिरी आँख से बहता हुआ पहला दुख है क्या करूँ बेच भी सकता नहीं गंजीना-ए-ज़ख़्म क्या करूँ बाँट भी सकता नहीं ऐसा दुख है ये तब-ओ-ताब ज़माने की जो है ना यारो कीजिए ग़ौर तो लगता है कि सारा दुख है तुम मिरे दुख के तनासुब को समझते कब हो जितनी ख़ुशियाँ हैं तुम्हारी मिरा उतना दुख है ऐसा लगता है मिरे साथ नहीं कुछ भी और ऐसा लगता है मिरे साथ हमेशा दुख है मुझ से मत आँख मिलाओ कि मिरी आँखों में शहर की ज़र्द घुटन दश्त सा प्यासा दुख है ले गए लोग वो दरिया-ए-जवाँ अपने साथ और मिरे हाथ जो आया है वो सहरा दुख है क्या बताऊँ कि लिए फिरता हूँ दुख कितने क़दीम तुम समझती हो फ़क़त मुझ को तुम्हारा दुख है उस के लहजे में थकन है न ही आसार-ए-मर्ग उस की आँखों में मगर सब से अनोखा दुख है हम किसी शख़्स के दुख से नहीं मिलते 'हैदर' जो ज़माने से अलग है वो हमारा दुख है