जिस्म उस के ग़म में ज़र्द-अज़-ना-तवानी हो गया जामा-ए-उर्यानी अपना ज़ाफ़रानी हो गया बे-तकल्लुफ़ हो जो बैठा खोल छाती के किवाड़ आईना हो मुन्फ़इल देख उस को पानी हो गया क्या हुआ बहकाए से तेरे भला अब ऐ रक़ीब आख़िरश उस ने हमारी बात मानी हो गया जाग ऐ ग़ाफ़िल कि पीरी की हुई तेरी सहर कट गई ग़फ़लत की शब अहद-ए-जवानी हो गया