जिस्म-ए-बे-सर कोई बिस्मिल कोई फ़रियादी था हश्र-सामानियाँ थीं मंज़िल-ए-जानाँ के क़रीब ज़ौ-फ़िशाँ शम्स था पर उस को ख़जिल होना पड़ा उन का हुस्न आ गया जब मेहर-ए-दरख़्शाँ के क़रीब अश्क बन बन के जो चमका था उफ़ुक़ पर बरसों वो सितारा नज़र आया तिरे मिज़्गाँ के क़रीब ताएर-ए-रूह ने पर्वाज़ की देख ऐ सय्याद तू गया ले के क़फ़स जब दर-ए-ज़िंदाँ के क़रीब मैं तो समझा था नशेमन भी जला ख़ैर हुई बर्क़ जब कौंद के आई थी गुलिस्ताँ के क़रीब आतिश-ए-इश्क़ बुझाए न बुझी ता-ब-लहद भड़की दामन से तो पहुँची ये गरेबाँ के क़रीब बू-ए-गुल दौड़ के सदक़े हुई गेसू पे 'ज़हीर' आप आए जो किसी दिन चमनिस्ताँ के क़रीब