जिस्मों की चढ़ती धूप का जब क़हर उतर गया इक शो'ला डूबने को सर-ए-नहर उतर गया फिर याद आ गई है तिरे आँसुओं की शाम फिर आज ज़ेर-ए-आब कोई शहर उतर गया अब डस रहा है मुझ को मिरा खोखला बदन सावन की बिजलियों से मिरा ज़हर उतर गया हम मौज-ए-तह-नशीं थे तुझे छू नहीं सके तू बर्ग-ए-सत्ह-ए-आब था हर लहर उतर गया अब रू-कश-ए-जमाल 'मुसव्विर' नहीं कोई चेहरा-ब-चेहरा अक्स-ए-रुख़-ए-दहर उतर गया