जितना तहज़ीब-ए-बदन से मैं सँवरता जाऊँ उतना ही टूट के अंदर से बिखरता जाऊँ ज़िंदगी जैसे कैलेंडर पे बदलती तारीख़ मैं शब-ओ-रोज़ के मानिंद गुज़रता जाऊँ क्या पता ख़्वाबों की ताबीर मिले या न मिले किसी काग़ज़ पे उन्हें नोट ही करता जाऊँ सेहन-ए-गुलशन से वो इक आख़िरी रिश्ता भी गया ख़ुश्क पत्तों की तरह अब तो बिखरता जाऊँ तह-ए-ज़ुल्मात इन आँखों के दिए जलते जाएँ ज़ीना ज़ीना मैं उजालों में उतरता जाऊँ गर्द-ए-दामन की तरह मुझ को उड़ाने वाले अक्स बन कर तिरी आँखों में ठहरता जाऊँ कितने घबराए हुए हैं मिरे क़ातिल 'मोहसिन' आस्तीनों पे लहू बन के उभरता जाऊँ