जिया ब-काम कब इस बख़्त-ए-अर्जुमंद से मैं फँसा क़फ़स में जो छूटा चमन के बंद से मैं है गो कि जज़्ब मिरा तार-ए-अंकबूत से सुस्त ये शेर फाँसे हैं अक्सर इसी कमंद से मैं कभू दे बज़्म में अपनी मुझे भी रुख़्सत-ए-सोज़ गया असर में मिरी जान क्या सिपंद से मैं जो तल्ख़िएँ कि ज़ख़ीरा मैं की हैं ग़म में तिरे न उन से एक को बदलूँ हज़ार क़ंद से मैं बुतान-ए-दहर से 'क़ाएम' किया मैं किस को पसंद हूँ अब हमेशा नदामत में जिस पसंद से मैं