जिए जाएँगे हम भी लब पे दम जब तक नहीं आता हमें भी देखना है नामा-बर कब तक नहीं आता पहुँचना था जो अर्ज़-ए-हाल को अर्श-ए-मुअज़्ज़म तक कई शब से वही नाला मिरे लब तक नहीं आता दिल अपना वादी-ए-ग़ुर्बत में शायद मर रहा जा कर न आने की भी इक मीआद है कब तक नहीं आता वहाँ औरों के क़िस्सों को भी सुन कर वो खटकते हैं यहाँ अपनी ज़बाँ पर हर्फ़-ए-मतलब तक नहीं आता यहाँ तक सीना-तंगी से ज़ईफ़ ओ ज़ार है नाला चला जो सुब्ह को वो ता-ब-लब शब तक नहीं आता जहाँ तम्हीद की वो और क़िस्से छेड़ देता है किसी सूरत से ज़ालिम हर्फ़-ए-मतलब तक नहीं आता बुला भेजें न जब तक 'शाद' को वो अपने कूचे में इजारा है तिरा ऐ शौक़ हाँ तब तक नहीं आता