जो अश्क बच गए उन्हें लाता हूँ काम में थोड़ी सी धूप रोज़ मिलाता हूँ शाम में बस्ती में इक चराग़ के जलने से रात भर क्या क्या ख़लल पड़ा है सितारों के काम में इक शख़्स अपनी ज़ात की ता'मीर छोड़ कर मसरूफ़ आज-कल है मिरे इंहिदाम में मुझ को भी इस गली में मोहब्बत किसी से थी अब नाम क्या बताऊँ रखा क्या है नाम में 'काशिफ़' हुसैन दश्त में जितने भी दिन रहा बैठा नहीं ग़ुबार मिरे एहतिराम में