जो बर्फ़-ज़ार चीर दे ऐसी किरन भी ला पत्थर दिलों में आज कोई कोहकन भी ला इस तरह सरसरी मिरा बाब-ए-वफ़ा न लिख वक़्त-ए-शुमार ज़ख़्म मिरा ख़स्ता-तन भी ला मुंसिफ़ अगर बना है तो सब को गवारा रख इंसाफ़ है तो मेरा फटा पैरहन भी ला जलने लगे हैं प्यास से फूलों के ख़ुश्क होंट अब्र-ए-बहार को ज़रा सू-ए-चमन भी ला चुप-चाप ख़ल्वतों में पिघलने से फ़ाएदा कोई चराग़ है तो सर-ए-अंजुमन भी ला इतना वो शादमाँ मुझे अच्छा नहीं लगा इस गुल के दिल में दाग़ की थोड़ी जलन भी ला ज़ख़्म-ए-सफ़र के दर्द-ए-मुसलसल का सेहर तोड़ निकला हुआ वतन से ग़रीब-उल-वतन भी ला ये चश्म-ए-इल्तिफ़ात ही काफ़ी नहीं मुझे मेरे लिए तो नरमी-ए-काम-ओ-दहन भी ला 'शाहीन' से अज़ीज़ है अपना लहू तो क्या नाश-ए-शहीद के लिए ख़ूनीं कफ़न भी ला