जो भी दरून-ए-दिल है वो बाहर न आएगा अब आगही का ज़हर ज़बाँ पर न आएगा अब के बिछड़ के उस को नदामत थी इस क़दर जी चाहता भी हो तो पलट कर न आएगा यूँ फिर रहा है काँच का पैकर लिए हुए ग़ाफ़िल को ये गुमाँ है कि पत्थर न आएगा फिर बो रहा हूँ आज उन्हीं साहिलों पे फूल फिर जैसे मौज में ये समुंदर न आएगा मैं जाँ-ब-लब हूँ तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ के ज़हर से वो मुतमइन कि हर्फ़ तो उस पर न आएगा