जो भी यहाँ हुआ वो बहुत ही बुरा हुआ हर आदमी का ज़ेहन है अब तक जला हुआ मिट्टी को सूँघने से कोई फ़ाएदा नहीं मैं जा रहा हूँ नक़्श-ए-वफ़ा छोड़ता हुआ रौज़न बना रहे हैं ख़ला में किरन के तीर सूरज इसी लिए है ज़मीं पर झुका हुआ हम सह रहे हैं अपने अज़ीज़ों के दर्द-ओ-ग़म आया जो दस्त-ओ-पा लिए बे-दस्त-ओ-पा हुआ इक शख़्स मेरे साथ सफ़र में रहा मगर मंज़िल क़रीब आई तो मुझ से जुदा हुआ मुझ को किसी की बात की पर्वा नहीं अभी मैं जी रहा हूँ शहर में तन्हा तो क्या हुआ अफ़्सोस की नहीं ये तअ'ज्जुब की बात है कैसे गुज़र गया वो मुझे देखता हुआ तुम ने मिरे लिए तो बहुत कुछ किया मगर क्या तुम को ऐ 'हसीर' कोई फ़ाएदा हुआ