जो बू-ए-ज़िंदगी मुझे किरन किरन से आई है हक़ीक़तन वो आप ही के पैरहन से आई है हमारे जिस्म ओ रूह को सुरूर दे गई वही नसीम-ए-ख़ुश-गवार जो तिरे बदन से आई है ये कौन शख़्स मर गया ये किस का है कफ़न कहो? कि ज़िंदगी की बू मुझे इसी कफ़न से आई है तरीक़त-ए-नबर्द में हमारा सिलसिला है और! ये ख़ुद-कुशी की रस्म-ए-बद तो कोहकन से आई है कली तो फिर कली हुई महक उठे हैं ख़ार भी मैं जानता हूँ ये नसीम किस चमन से आई है खुले रखे हैं मैं ने सारे रंग-ओ-बू के रास्ते मिरे चमन की ये फबन चमन चमन से आई है मैं 'साबिर'-ए-सुख़न-तराज़ क्यूँ किसी को दोश दूँ कि मेरे सर पे हर बला मिरे सुख़न से आई है