जो छाँव देता है मुझ को घना शजर बन कर मैं उस का साथ निभाती हूँ उस का घर बन कर फ़ज़ा-ए-इल्म-ओ-हुनर रास आ गई है मुझे ख़ुदा करे कि रहूँ हर्फ़-ए-मो'तबर बन कर तू चाँद है तो दुआ है कभी ग़ुरूब न हो उफ़ुक़ में मैं भी रहूँ मतला-ए-सहर बन कर ग़लत समझती थी मैं उस को राज़दाँ अपना जो एक साया सा उभरा था हम-सफ़र बन कर उम्मीद-ओ-बीम से जब आज़ाद हो गई 'अम्बर' तो कामयाब हुई साहिब-ए-नज़र बन कर