जो दौलत तरक़्क़ी-रसाई बहुत है तो आपस में उस से जुदाई बहुत है अगर तुझ में उल्फ़त समाई बहुत है तो सुन लो यहाँ बे-वफ़ाई बहुत है कभी दर्द माँ को नहीं दो कि इस की हर एक आह में गहरी खाई बहुत है ख़ुदा की रज़ा है न हासिल किसी को ख़ुदा के लिए पर लड़ाई बहुत है मोहब्बत लुटाई है अपनो पे बेहद मगर चोट अपनो से खाई बहुत है हक़ीक़त में वो दौर काफ़ी है मुझ से तसव्वुर में जो पास आई बहुत है सियासत ने जश्न-ए-चराग़ाँ के बदले ग़रीबों की बस्ती जलाई बहुत है हर इक शय से ले कर ज़मीन-ओ-फ़लक को मयस्सर ख़ुदा की ख़ुदाई बहुत है अगर मुझ को ईमाँ की परवाह न होती तो दुनिया में 'अज़हर' कमाई बहुत है