जो दिल मिरा नहीं मुझे उस दिल से क्या ग़रज़ चलनी न हो जो राह तो मंज़िल से क्या ग़रज़ डूबूँगा गर है मेरे मुक़द्दर में डूबना ग़व्वास-ए-बहर-ए-इश्क़ को साहिल से क्या ग़रज़ वो दिल को देखता है न आमाल-ए-ज़ाहिरी लैला के ख़्वास्त-गार को महमिल से क्या ग़रज़ सुनता है कौन आशिक़ों की आह-ओ-ज़ारियाँ गोश-ए-चमन को शोर-ए-अनादिल से क्या ग़रज़ हम उस के शेफ़्ता हैं रक़ीबों से वास्ता गुल से ग़रज़ है फ़ौज-ए-अनादिल से क्या ग़रज़ मरता हूँ और जा नहीं सकता सू-ए-अदम मुझ ना-तवाँ को तौक़-ओ-सलासिल से क्या ग़रज़ क्यूँ दर-पय-ए-तलाश हैं अहबाब-ओ-अक़रबा 'परवीं' शहीद-ए-नाज़ को क़ातिल से क्या ग़रज़