जो दिन ढला तो अजब बेबसी का मंज़र था बहुत से धड़ थे धड़ों पर कहीं कहीं सर था अजब मक़ाम पे सब छोड़ कर हुए रुख़्सत कोई न था मिरी ज़द पर मैं सब की ज़द पर था मैं रेत रेत जो बिखरा तो हो गया तहलील सिमट के ख़ुद में जो फैला तो इक समुंदर था हुई सभी से बग़ल-गीर मस्लहत मेरी किसी किसी से मिला वो जो मेरे अंदर था क़दम उठा के चली ज़िंदगी वही थी मिरी जो थक के बैठ गया वो मिरा मुक़द्दर था जवाब क्यों नहीं देते खंडर खंडर मंज़र ये मेरा शहर था इस में कहीं मिरा घर था