जो एक पल को बुझे बज़्म-ए-रंग-ओ-बू के चराग़ तो हम ने दार पे रौशन किए लहू के चराग़ हवा-ए-तीरा-नसब क्या बुझा सकेगी उन्हें कि आंधियों में भी जलते हैं आरज़ू के चराग़ अदा-ए-मौसम-ए-गुल का कमाल क्या कहिए कली कली से फ़रोज़ाँ हुए नुमू के चराग़ बुझी जो सुब्ह तो सीनों में दिल जलाए गए हुई जो शाम तो रौशन हुए सुबू के चराग़ ये नक़्श-ए-पा हैं मिरे या सवाद-ए-मंज़िल तक क़दम क़दम पे नुमायाँ हैं जुस्तुजू के चराग़ कभी कभी तो 'ज़िया' वो भी वक़्त आता है बुझाने पड़ते हैं ख़ुद अपनी आरज़ू के चराग़