जो एक उम्र हँसा था मुझे सताते हुए वो रो पड़ा है मिरी दास्ताँ सुनाते हुए किसी के प्यार की ये आख़िरी निशानी है हवा ने ये भी न सोचा दिया बुझाते हुए तुम्हें भी वक़्त की गर्दिश निगल न जाए कहीं ज़रा ख़याल हो मेरी हँसी उड़ाते हुए वो शख़्स जिस का तअ'ल्लुक़ न था कोई मुझ से ये क्या कि रोने लगा मुझ से दूर जाते हुए निगाह-ए-नाज़ की फ़रमा-रवाइयाँ तौबा वो मुस्कुरा भी रही थीं सज़ा सुनाते हुए इलाज अपने अँधेरों का आप ख़ुद कीजे कुम्हार थक से गए हैं दिया बनाते हुए घुला है दर्द फ़ज़ाओं में इस तरह 'सादिक़' कि जान जाती है इक बार मुस्कुराते हुए