जो हवा है सूरत-ए-बाद-ए-मुख़ालिफ़ तेज़ है दिल का मैदाँ है कि इक सहरा-ए-आफ़त-ख़ेज़ है मेरे साक़ी दम-ब-दम क्यूँकर भरा आए न दिल दूर हूँ मैं और साग़र बज़्म में लबरेज़ है दुख उठाने की भी आख़िर होती है कुछ इंतिहा बुलबुल-ए-दिल का मिरे नग़्मा भी दर्द-अंगेज़ है आमद आमद है ख़िज़ाँ की क्यूँ न रोए अंदलीब गुल अभी नौ-कार हैं सब्ज़ा अभी नौ-ख़ेज़ है तेरे वहशी जाते हैं उफ़्तान-ओ-ख़ेज़ाँ सू-ए-दश्त हो जुनूँ देखे से ऐसी चाल वहशत-ख़ेज़ है क्यूँ न रोएँ सैकड़ों तूफ़ान उठ्ठे चाह में हम न वाक़िफ़ थे कि बहर-ए-इश्क़ तूफ़ाँ-ख़ेज़ है आब-ए-ख़ंजर तू मिला दे तो छलक जाए अभी उम्र का साग़र यहाँ इक उम्र से लबरेज़ है उस पे मरता हूँ मिरे मरने की है जिस को ख़ुशी आरिज़ा वो है कि जिस से मौत को परहेज़ है तुख़्म उल्फ़त का ज़मीन-ए-दिल में बोना क्या ज़रूर लोग कहते हैं कि ये तो ख़ुद मोहब्बत-ख़ेज़ है हो जहाँ मा'शूक़ वाँ आशिक़ भी होता है ज़रूर याँ यूँ ही रोज़-ए-अज़ल से हुस्न-ओ-इश्क़ आमेज़ है नज़्अ' में भी मातम-ए-दिल है तलाश-ए-यार है पाँव हैं चालाक अब तक हाथ अब तक तेज़ है किस तकल्लुफ़ से निबाही मैं ने उल्फ़त आप की फ़ख़्र करता हूँ कि मेरा इश्क़ हुस्न-आमेज़ है काट के सर मेरा तुम ने हाथ में लटका दिया देखो ये मेरी वफ़ादारी की दस्तावेज़ है कर दिया है मस्त सारे ख़ुफ़्तगान-ए-ख़ाक को क्या हुआ शहर-ए-ख़मोशाँ की नशात-अंगेज़ है है 'रशीद' अब तक गियाह-ए-लखनऊ मर्दुम गियाह क्या ज़मीं है जो उजड़ जाने पे मर्दुम-ख़ेज़ है