जो इंसाँ बारयाब-ए-पर्दा-ए-असरार हो जाए तो इस बातिल--कदे में ज़िंदगी दुश्वार हो जाए ये दुनिया-ए-वफ़ा दुनिया-ए-बे-आज़ार हो जाए मुझी पर क्यूँ न तकमील-ए-जफ़ा-ए-यार हो जाए जो ज़ुल्मत में भी तनवीर-ए-हक़ीक़त देखना चाहे वो मेरी तरह पिछली रात से बेदार हो जाए ग़ुरूर-ए-हुस्न भी मेरे लिए जुज़्व-ए-अदा दाएरे मिरा एहसास भी तेरे लिए पिंदार हो जाए ग़म-ए-पिन्हाँ से दम घुटता है ऐ 'सीमाब' क्या कहिए ख़ुदा ऐसा करे ये क़ाबिल-ए-इज़हार हो जाए