जो ज़ख़्म जम्अ किए आँख-भर सुनाता हूँ सुनोगे बंद ज़बाँ क्या नज़र सुनाता हूँ जो सुन सको तो सुकूत-ए-पस-ए-नवा भी सुनो यही तो मैं तुम्हें शाम ओ सहर सुनाता हूँ निगाह लाओ जो रंग-ए-सदा कशीद करे कि मैं तो ख़ामोशियों के हुनर सुनाता हूँ यही कमाल है मेरे अलग तकल्लुम का ख़बर भी होती नहीं जो ख़बर सुनाता हूँ अगरचे एक ही दरिया की नग़्मा-ख़्वानी है किनारा सौत तिरी मैं भँवर सुनाता हूँ तुम्हारे वास्ते शायद मिरा कलाम न हो जिन्हें ख़बर नहीं मैं क्या ख़बर सुनाता हूँ ठहर गया है मिरे हर्फ़ का यही मेआर धुआँ उड़ाता नहीं मैं शरर सुनाता हूँ