जो जवाबों से भरे थे वो सवाली हो गए आख़िरश तो सारे बर्तन फिर से ख़ाली हो गए अपनी मिट्टी में दबे जो उठ न पाए वो कभी दूसरों में जो उगे वो ला-ज़वाली हो गए न थी ख़्वाबों की मिरे अश्काल न पैकर कोई तेरी आँखों से जो गुज़रे तो ग़ज़ाली हो गए पंखुड़ी जब बंद थी तो था ज़र-ए-गुल राएगाँ और खोली पंखुड़ी तो डाली डाली हो गए हैं परिंदे भी परेशाँ फूल पत्ते भी दुखी बाग़ उजाड़ा था जिन्हों ने वो ही माली हो गए रह गए वो बे-निशाँ जो राह-ए-रस्मी पे चले जिन की राहें थी अलग वो सब मिसाली हो गए