जो क़तरे में समुंदर देखते हैं तुझे मंज़र-ब-मंज़र देखते हैं क़बा-ए-दर्द जब से ज़ेब-ए-तन है ख़ुशी को अपने अंदर देखते हैं चलो अम्न-ओ-अमाँ है मय-कदे में वहीं कुछ पल ठहर कर देखते हैं कभी तन्हाई ने तन्हा न छोड़ा तमाशा फिर भी घुस कर देखते हैं करम-फ़रमाई है सूरज की ये भी उसे अपने बराबर देखते हैं हम अपने पाँव फैलाएँगे 'अख़्तर' कहाँ तक है ये चादर देखते हैं