जो मिरे दिल में है लोगों से छुपाऊँ किस तरह काँच के इस शहर को 'ख़ालिद' बचाऊँ किस तरह तू तो पहले से भी अब मासूम है मेरे लिए मैं तिरी इज़्ज़त को मिट्टी में मिलाऊँ किस तरह अपना पैकर भी मुझे ज़िंदाँ नज़र आने लगा कश्मकश में हूँ रिहाई ख़ुद से पाऊँ किस तरह मैं किसी के अद्ल की टूटी हुई ज़ंजीर हूँ मुझ पे जो बीती है दुनिया को बताऊँ किस तरह देख किस अक्स-ए-मुक़ाबिल जिस्म पत्थर हो गया छोड़ कर अब आइना-ख़ाने को जाऊँ किस तरह जागते लम्हों की ज़ंजीरों में हूँ जकड़ा हुआ ख़्वाब की दीवार के साए में आऊँ किस तरह रतजगों के शहर में जा कर उसे क्या हो गया वो तो कहता था कि मैं तुझ को भुलाऊँ किस तरह