जो पलकों पर मिरी ठहरा हुआ है वो आँसू ख़ून में डूबा हुआ है फ़रिश्ते ख़्वान ले कर आ रहे हैं सहीफ़ा ताक़ में रक्खा हुआ है कोई अनहोनी शायद हो गई फिर ग़ुबार-ए-कारवाँ ठहरा हुआ है किसी की ख़्वाहिशें पा-बस्ता कर के ये कब सोचा हरम रुस्वा हुआ है वो इक लम्हा जो तेरे वस्ल का था बयाज़-ए-हिज्र पर लिक्खा हुआ है मुझे भी हो गया इरफ़ान-ए-ज़ात अब मुक़ाबिल आइना रक्खा हुआ है अयादत करने सब आए हैं 'अख़्तर' तिरा चेहरा मगर उतरा हुआ है