जो राह-रौ में अभी अज़्म-ए-रह-रवी कम है ब-क़ैद-ए-होश-ओ-ख़िरद आज आगही कम है फ़ज़ा-ए-दहर पे छाने लगी है तारीकी कई चराग़ जलाओ कि रौशनी कम है हैं यूँ तो आज भी पाबंद-ए-मेहर-ओ-माह मगर हनूज़ ज़ह्न में इंसाँ के रौशनी कम है हज़ार कोशिश-ए-पैहम के बाद भी लोगो मिरे ज़हन में अभी रब्त-ए-बाहमी कम है सिमट के मरकज़-ए-असली पे आ चुकी दुनिया मगर दिलों में कुछ एहसास-ए-ज़िंदगी कम है 'कलीम' अज़्मत-ए-अह्द-ए-वफ़ा से वाक़िफ़ है मगर शुऊर-ए-वफ़ा आप को अभी कम है