जो रोएँ दर्द-ए-दिल से तिलमिला कर तो वो हँसता है क्या क्या खिलखिला कर यही देखा कि उठवाए गए बस जो देखा टुक उधर को आँख उठा कर भला देखें ये किन आँखों से क्यूँ जी किसी को देखना हम को दिखा कर खड़ा रहने न दें वो अब कि जो शख़्स उठाते थे मज़े हम को बिठा कर गया वो दिल भी पहलू से कि जिस को कभी रोते थे छाती से लगा कर चली जाती है तू ऐ उम्र-ए-रफ़्ता ये हम को किस मुसीबत में फँसा कर ख़त आया वाँ से ऐसा जिस से अपना नविश्ता ख़ूब समझे हम पढ़ा कर अभी घर से नहीं निकला वो तिस पर चला घर-बार इक आलम लुटा कर दिया धड़का उसे कुछ वस्ल में हाए बिगाड़ी बात गर्दूं ने बना कर मोहब्बत इन दिनो जो घट गई वाँ तो कुछ पाते नहीं उस पास जा कर मगर हम शौक़ के ग़लबे से हर बार ख़जिल होते हैं हाथ अपना बढ़ा कर नहीं मुँह से निकलती उस के कुछ बात किसी ने क्या कहा 'जुरअत' से आ कर