जुदाई के सदमों को टाले हुए हैं चले जाओ हम दिल सँभाले हुए हैं ज़माने की फ़िक्रों ने खाया है हम को हज़ारों के मुँह के निवाले हुए हैं गज़ंद अपने हाथों से पहुँचा है हम को ये साँप आस्तीनों के पाले हुए हैं नहीं नाम को उन में बू-ए-मुरव्वत ये गुल-रू मिरे देखे-भाले हुए हैं नहीं ए'तिबार एक दम ज़िंदगी का अज़ल से क़ज़ा के हवाले हुए हैं हज़ारों को थे सरफ़रोशी के दावे तसद्दुक़ फ़िदा होने वाले हुए हैं हम-आवाज़ हैं ऐश ओ ग़म दोनों लेकिन तराने ये ठहरे वो नाले हुए हैं 'मुनीर' अब रह-ए-हक़ में लग़्ज़िश न होगी यद-उल्लाह मुझ को सँभाले हुए हैं