जुलूस-ए-तेग़-ओ-अलम जाने किस दयार का है पस-ए-ग़ुबार भी इक सिलसिला ग़ुबार का है ख़ला-ए-जाँ का सफ़र और फिर तन-ए-तन्हा ये रास्ता भी बड़े जब्र ओ इख़्तियार का है तुम आ गए हो तो मुझ को ज़रा सँभलने दो अभी तो नश्शा सा आँखों में इंतिज़ार का है मुक़ाम-ए-बे-ख़बरी है यहाँ से कितनी दूर कि शहर-ए-दिल में बड़ा शोर शहरयार का है नहीं है सहल मिरी तर्ज़ पर ग़ज़ल कहना शिआर ये किसी यकता-ए-रोज़गार का है