जुनूँ में हम रह-ए-ख़ौफ़-ओ-ख़तर से गुज़रे हैं जिधर से कोई न गुज़रे उधर से गुज़रे हैं सफ़-ए-सलीब जहाँ इंतिज़ार करती थी मसीह-ए-वक़्त उसी रहगुज़र से गुज़रे हैं मैं डूब डूब के उभरा हूँ हर तलातुम से हज़ार सैल-ए-रवाँ मेरे सर से गुज़रे हैं जो कल थे बैठे हुए गेसुओं के साए में वो आज तपती हुई रहगुज़र से गुज़रे हैं सुकूत-ए-शाम में यादों के कारवाँ 'माहिर' दिल-ए-तबाह के उजड़े नगर से गुज़रे हैं