जुनून-ए-इश्क़ को भी हम इलाज-ए-ग़म समझते हैं जो दिल पर ज़ख़्म लगता है उसे मरहम समझते हैं है जिस को इस ज़माने में बस अपने काम से मतलब उसे इंसानियत के वास्ते हम सम समझते हैं कहो ये दास्तान-ए-रंज-ओ-ग़म तुम ग़ैर से जा कर हम ऐसी बे-तुकी बातें बहुत ही कम समझते हैं सुकून उस को मयस्सर हो गया ये मिल गई जिस से निगाह-ए-यार को हम फूल पर शबनम समझते हैं बिना इंसानियत की डाल दी जिस ज़ात ने 'अंजुम' उसे अहल-ए-ख़िरद सरमाया-ए-आदम समझते हैं