जुनूँ की रस्म ज़माने में आम हो न सकी हवस थी चाह वफ़ा की ग़ुलाम हो न सकी लिखे थे दार-ओ-रसन जिस किसी की क़िस्मत में फिर उस की ज़ुल्फ़ के साए में शाम हो न सकी मिरी उदासी का बाइ'स शब-ए-फ़िराक़ नहीं बसर ये रात ब-सद-एहतिमाम हो न सकी मिरी निगाह उठी ही रही सू-ए-जानाँ तजल्लियों में घिरी हम-कलाम हो न सकी रवा जहाँ को कि मजनूँ को संगसार करे क़बा-ए-ज़ीस्त जुनूँ की नियाम हो न सकी ख़िरद की बात भी सुनते कहाँ मिली फ़ुर्सत जुनूँ की बात लहद तक तमाम हो न सकी