नहीं मा'लूम वो अपनी वफ़ा को क्या समझते हैं तिरे इंकार करने को भी जो वा'दा समझते हैं ज़माने को तुम्हारा और तुम्हें अपना समझते हैं अगर ऐसा समझते हैं तो क्या बेजा समझते हैं न पूछो हम मोहब्बत की ख़लिश को क्या समझते हैं ये वो ने'मत है जिस को हासिल-ए-दुनिया समझते हैं पहुँच जाने में उन तक है तो बस ये ज़िंदगी हाइल हम अपनी साँस को भी राह का काँटा समझते हैं ज़मीं से सर उठाते ही निगाहें चार हो जाएँ हक़ीक़त में उसी सज्दे को हम सज्दा समझते हैं सुनाना था दिल-ए-बेताब का क़िस्सा सुना डाला वो सुन कर देखिए क्या सोचते हैं क्या समझते हैं उन्हीं के वास्ते हैं इम्तिहान-ए-इश्क़ की क़ैदें जो अपनी हस्ती-ए-मौहूम का मंशा समझते हैं वफ़ादारों से पूछो नर्ख़ अपनी जिंस-ए-उल्फ़त का अगर सर दे के भी मिल जाए तो सस्ता समझते हैं उन्हीं के सर रहा करता है मोहरा ना-ख़ुदाई का जो क़तरे की हक़ीक़त को भी इक दरिया समझते हैं गिला बे-सूद है ऐ 'जुर्म' बे-मेहरी-ए-आलम का बुरा कुछ लोग कहते हैं तो कुछ अच्छा समझते हैं