जुरअत ऐ दिल मय ओ मीना है वो ख़ुद-काम भी है बज़्म अग़्यार से ख़ाली भी है और शाम भी है ज़ुल्फ़ के नीचे ख़त-ए-सब्ज़ तो देखा ही न था ऐ लो एक और नया दाम तह-ए-दाम भी है चारागर जाने दे तकलीफ़-ए-मुदावा है अबस मरज़-ए-इश्क़ से होता कहीं आराम भी है हो गया आज शब-ए-हिज्र में ये क़ौल ग़लत था जो मशहूर कि आग़ाज़ को अंजाम भी है काम-ए-जानाँ मेरा लब-ए-यार के बोसे से सिवा ख़ू-गर-ए-चाशनी-ए-लज़्ज़त-ए-दुश्नाम भी है शैख़ जी आप ही इंसाफ़ से फ़रमाएँ भला और आलम में कोई ऐसा भी बदनाम भी है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ दैर ओ हरम शाम ओ सहर 'ऐश' इन में ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र भी है जल्वा-ए-इस्लाम भी है