जुरअत-ए-इश्क़ हवस-कार हुई जाती है बे-पिए तौबा गुनहगार हुई जाती है दिल है अफ़्सुर्दा तो बे-रंग है हर रंग-ए-बहार बू-ए-गुल भी ख़लिश-ए-ख़ार हुई जाती है बावजूदे-कि जुनूँ पर हैं ख़िरद के पहरे फिर भी ज़ंजीर की झंकार हुई जाती है हर नफ़स मौज-ए-फ़ना तेरे थपेड़ों के तुफ़ैल कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ पार हुई जाती है जो नमाज़ आज सर-ए-दार अदा की मैं ने सज्दा-ए-शुक्र का मेआर हुई जाती है जितनी आसानियाँ होती हैं फ़राहम दिन रात ज़िंदगी उतनी ही दुश्वार हुई जाती है जब से देखा है किसी के रुख़-ए-रौशन को 'फ़िगार' आँख हर जल्वे से बेज़ार हुई जाती है