क्यूँ बैठ गए ग़ुबार से हम कुछ कह न सके बहार से हम ये ज़िंदगी उम्र भर का रोना घबरा गए इंतिज़ार से हम वो जब्र की लज़्ज़तों का आलम बाज़ आए इस इख़्तियार से हम हँसते हैं कि हँस सके ज़माना ख़ुश हैं तो इस ए'तिबार से हम यूँ भी तो सुकूँ मिला है बरसों फिरते रहे बे-क़रार से हम वो लम्हा है आज तक गुरेज़ाँ जब तुम से थे हम-कनार से हम अब आख़िर-ए-शब 'नज़र' है शायद फिर जैसे हैं होशियार से हम