कब बैठते हैं चैन से ईज़ा उठाए बिन लगता नहीं है जी कहीं लग्गा लगाए बिन जब तक न बे-क़रार हों पड़ता नहीं क़रार आता नहीं है चैन हमें तिलमिलाए बिन बे-आह-ओ-नाला मुँह से निकलती नहीं है बात हैरान बैठे रहते हैं आँसू बहाए बिन ज़िंदाँ लगे है घर जो किसी का न हों असीर आते नहीं ब-ख़ुद कहीं हम आए जाए बिन दीवाने गर न हों तो परी-रू न देखें सैर बिगड़े है बात हाल-ए-परेशाँ बनाए बिन जुम्बिश न दस्त-ओ-पा में हो बे-शोरिश-ए-जुनूँ अफ़्सुर्दा-तब्अ रहते हैं धूमें मचाए बिन गर हो न दर्द-ए-इश्क़ तो बे-दर्द हम कहाएँ कुछ लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू ही नहीं हाए-वाए बिन क्या जोश-ए-तब्अ हो न मय-ए-इश्क़ गर पिएँ कुछ कैफ़ियत नहीं है ये प्याला पिलाए बिन गर बर में हो न कोई तो पहलू-तही रहे क्या बैठना है ज़ानू से ज़ानू भिड़ाए बिन कोई न दे दिखाई तो क्या ख़ाक देखिए रहते असीर-ए-ग़म हैं किसी के बुलाए बिन अफ़्कार सैकड़ों हों अगर हो न फ़िक्र-ए-इश्क़ वारस्तगी कहाँ है कहें जी फँसाए बिन क़ातिल से गर न मिलिए तो 'जुरअत' हमारी क्या जूँ गुल शगुफ़्ता हो न कोई ज़ख़्म खाए बिन