कब गुल है हवा-ख़्वाह सबा अपने चमन का वा जुम्बिश-ए-दम से है रफ़ू ज़ख़्म-ए-कुहन का बेताबी-ए-दिल तेरे शहीदों की कहाँ जाए कुछ कम रग-ए-बिस्मिल से नहीं तार कफ़न का देता है फिर आईने को किस वास्ते बोसा वो आप जो दिल-दादा नहीं अपने दहन का मानिंद-ए-हबाब आप किया इश्क़ ने 'ममनूँ' पाया न निशाँ जामा में अपने कहीं तन का