कब इस ज़मीं पे मुझे आर्मीदा होना था हवा से ख़ाक को बरसों परीदा होना था अगर थी दामन-ए-जानाँ की आरज़ू ऐ दिल तो चंद दम के लिए आब-दीदा होना था किसी के चेहरे पे होता किसी के दामन में मुझे भी आँख का अश्क-ए-चकीदा होना था कभी न ख़िदमत-ए-दामन से सरफ़राज़ हुआ वो हाथ हूँ कि जिसे ना-रसीदा होना था कमाल-ए-बे-अदबी से ये अर्ज़ करते हैं हमीं से ऐ क़द-ए-जानाँ कशीदा होना था अगर थी लज़्ज़त-ए-पामाल की हवस ऐ दिल ब-शक्ल-ए-सब्ज़ा ज़मीं पर दमीदा होना था अजब न था कि उसे रहम कुछ न कुछ आता मेरी उमीद तुझे अब्र-दीदा होना था कमाल-ए-रब्त में होती हैं सैकड़ों बातें न इस क़दर तुम्हें हम से कशीदा होना था तिरा जमाल बना मैं कभी, कभी एहसाँ ग़रज़ ये थी कि मुझे बरगुज़ीदा होना था खुली अब आँख तो क्या फ़ाएदा 'नसीम' अफ़सोस न समझे ज़ेर-ए-लहद आर्मीदा होना था