कब खेत उमीदों के तह-ए-आब न आए किस रुत में निराशाओं के सैलाब न आए कुछ लोग मदद को तो किनारों पे खड़े थे पर डूबने वाले ही सर-ए-आब न आए ऐ ज़ीस्त हुए दोस्त मिरे सुर्ख़-रू जिन से मुझ को तिरी महफ़िल के वो आदाब न आए इस शहर में शर्मिंदा हर इक दर पे न होते क्यों हाथों को हम संग तले दाब न आए डरता हूँ 'सबा' कसरत-ए-बारान-ए-करम से दिल रेत का घर है कहीं सैलाब न आए