कब शौक़ मिरा जज़्बे से बाहर न हुआ था था कौन सा क़तरा जो समुंदर न हुआ था क्या याद तिरी दिल को मिरे कर गई तारीक इक गोशा भी तो इस का मुनव्वर न हुआ था किस तरह कोई अहद-ए-वफ़ा मुझ से करे आज जब रोज़-ए-अज़ल में ये मुक़द्दर न हुआ था दीदार की हसरत ही हुई वजह-ए-तअस्सुफ़ क़िस्मत में मिरी हर्फ़-ए-मुकर्रर न हुआ था आँखों में जगह उस को मिली वाह रे तक़दीर वो क़तरा जो ख़ुश-बख़्ती से गौहर न हुआ था ग़र्क़ाब हुई कश्ती-ए-हस्ती लब-ए-साहिल 'शाकिर' तो अभी उस का शनावर न हुआ था