कब तक दिमाग़-ए-हुस्न की नख़वत न जाएगी ऐसे तो राएगाँ ये अक़ीदत न जाएगी कीकर की शाख़ ने ये लिखा फ़र्क़-ए-क़ैस पर बरती तिरे जुनूँ से रिआ'यत न जाएगी महजूब सा खड़ा हूँ हथेली पे दिल लिए इस रह से अब कभी ये ज़ियारत न जाएगी दफ़नाएँ हम को दोस्त किताब-ओ-क़लम समेत ज़ेर-ए-लहद भी ज़ीस्त की आदत न जाएगी मस्कन किए हुए है किसी की दुआ यहाँ आँखों से जीते जी तो ये हैरत न जाएगी 'जौहर' गले लगो कि मिलाओ हज़ार हाथ लिख लो दिल-ए-शक़ी से कुदूरत न जाएगी