कब तलक किर्चियाँ चुनूँगी मैं संग-दिल तुझ से लड़ पड़ूँगी मैं मेरी आँखें नहीं रहीं लेकिन आइना देखती रहूँगी मैं माँ के नक़्श-ए-क़दम पे चलना है सिर्फ़ गुड़िया नहीं रहूँगी मैं खींच कर इक लकीर उदासी की रंग मंज़र में कुछ भरूँगी लफ़्ज़ अब राएगाँ न होंगे मिरे इन से फिर ज़ख़्म-ए-दिल सियूँगी मैं