कब तिरे ज़िक्र से दिल शाद नहीं कब मिरे लब पे तिरी याद नहीं पूछिए मुझ से न हाल-ए-माज़ी क्या सुनाऊँ मुझे कुछ याद नहीं वो निगाहों का तसादुम सर-ए-राह मुझ को है याद तुझे याद नहीं इश्क़ और हुस्न हदों में अपने दोनों पाबंद हैं आज़ाद नहीं जिस से ज़ाहिर न हों जज़्बात-ए-दिल शेर वो मुस्तहिक़-ए-दाद नहीं इस्तक़ामत नहीं जिस को हासिल वो तो धोका है तिरी याद नहीं गुलशन-ए-इल्म-ओ-अदब में 'अकमल' हज़रत-ए-‘क़द्र’ सा उस्ताद नहीं